नर से नारायण हो
या फ़िर
नारायण से नर
है दिवास्वप्न ये क्या
सामर्थ बेशक होगा तुझमें
पत्थर को पिघलाने का
पानी से बिजली लाने का प्रतिदिन
उन्नति को छूकर
जीवन में बढते जाने का
नित नवीन प्रयोगों से
मानव जीवन
सफल बनाने का किंतु
स्मरण रखना तू
इस प्रकृति का
जिसने खुद के आंचल में
जीवन कई जन्में हैं
है बल तुझमें माना
किंतु
भूल नहीं जाना
अखिल ब्रह्मांड है यह तू
वायु का वेग नहीं बढा सकता
नव शाखा तो उगा सकता है
किंतु
बीज नहीं बना सकता
जीवन निरोग बना सकता है
किंतु
नव जीवन नहीं दे सकता
चाह कामयाबी की
गलत नहीं तेरी
किंतु
मंजिल को पाने में
राह पर भी तो गौर कर
अपने इस व्यस्त जीवन में
अपनी प्रकृति से भी प्रेम कर
मानव !
पंचतत्व से बना है तू
ज़रा खुद पे भी तो गौर कर
अपनी प्रकृति से भी प्रेम कर ||
No comments:
Post a Comment